दुर्बलता छोड़ो – दृढ़ता अपनाओ Class 12 नैतिक शिक्षा (उत्तरा) Chapter 1 Explain – HBSE आदर्श जीवन मूल्य Book Solution

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दुर्बलता छोड़ो – दृढ़ता अपनाओ Class 12 Naitik Siksha Chapter 1 Explain


युद्धकाल में तू नपुंसक न बन, नहीं तेरे योग्य है यह अर्जुन।
दुर्बलता हृदय की यह छोड़कर उठ ऐ परंतप । अब युद्ध कर ॥

प्यारे विद्यार्थियो! आप जानते ही होंगे कि महाभारत का युद्ध पाण्डवों और कौरवों के बीच लड़ा गया था। महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले अर्जुन अपना मनोबल पूरी तरह गिरा बैठा। सबसे पहले युद्ध को लेकर तरह-तरह की आशंकाओं-चिन्ताओं ने उसके बाद भय और शोक ने अर्जुन के मन पर पूरा अधिकार कर लिया। इतना बलवान अर्जुन, जो युद्ध में कभी किसी से परास्त नहीं हुआ, आज वह हार गया; किसी और से नहीं, अपने मन से, मन में भरी हुई मोह-माया से, शोक और भय की वृत्ति से। परिणाम यह हुआ कि अर्जुन का मन कमजोर हो गया। कमजोर मन हो जाने के कारण उसका शरीर भी लड़खड़ाने लगा। अर्जुन निराश, उदास और हताश होकर रथ के पिछले भाग में जा बैठा। युद्ध न करने की भावना उसके मन में घर कर गई।

प्यारे वत्स! अर्जुन को इस तरह मोह और अज्ञानता से ग्रस्त होते देख प्रभु श्रीकृष्ण ने उसे समझाने का प्रयास किया। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यहाँ सीधा संकेत कर रहे हैं- क्षुद्र हृदयदौर्बलाम् अर्थात अपने हृदय की इस दुर्बलता को छोड़, जिसने तुझ महाबलशाली को भी इतना कमजोर कर दिया।

प्यारे विद्यार्थियो! सदैव स्मरण रहे कि यह बात केवल अर्जुन के लिए ही नहीं है। वैसे तो सम्पूर्ण ‘गीता’ का उपदेश केवल अर्जुन के लिए ही नहीं है, बल्कि यह उपदेश तो प्रत्येक मानव के लिए है; हम सबके लिए है। ‘गीता’ का यही भाव है कि यह समस्या अर्जुन की ही नहीं, बल्कि हम सब अर्थात् प्रत्येक मनुष्य की है। हमारा मन जब-जब भी किसी कारण से काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार आदि किसी वृत्ति के अधीन होता है अथवा भविष्य की चिन्ताओं-आशंकाओं-भय-शोक आदि का मन में प्रवेश हो जाता है, तब-तब हमारा अच्छा, मजबूत मन भी कमजोर पड़ने लगता है। यह सच है कि चिन्ताओं-आशंकाओं ये युक्त भय आदि अन्दर की ऊर्जा को वैसे ही खोखला करने लगते हैं, जैसे लकड़ी के अन्दर लगी दीमक लकड़ी को खोखला कर देती है।

प्यारे बच्चो! अभी तो आप युवा हो। बचपन की दहलीज को लाँघकर यौवन के आँगन में आए हो। वर्तमान में आप जैसे बच्चों के बचपन और यौवन में ही लड़खड़ाया हुआ मनोबल को देखकर और उसके फलस्वरूप मुरझाया हुआ चेहरा देखकर बहुत आश्चर्य एवं वेदना होती है। आप स्वयं सोचो और बताओ कि क्या आप इसे अच्छा कह सकते हैं? क्या यह अनमोल यौवन के साथ अन्याय नहीं है? यदि आपका मन स्वस्थ, शान्त, स्थिर, एकाग्र और विश्वास से भरा हुआ होगा, तो ही आप अपने शरीर से कुछ अच्छा कर पाओगे, तभी जीवन में महानता की सीढ़ियाँ चढ़ सकोगे। प्रत्येक सफल व्यक्ति ने भी जिस किसी क्षेत्र में सफलता का शिखर छुआ है तो केवल अपने मजबूत मनोबल से ही हुआ है। गिरे हुए मन अर्थात् कमजोर हृदय से कोई भी किसी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाया न ही कभी बढ़ पाएगा। किसी भी व्यक्ति के पास साधन-सुविधाएँ कितनी भी अधिक क्यों न हों, लेकिन उसका मनोबल गिरा हुआ हो, हृदय दुर्बल हो तो वह अच्छा जीवन नहीं जी सकता। इसलिए ‘श्रीमद्भगवद्‌गीता’ के इस उद्बोधन से स्वयं को उठाओ, जगाओ, आगे बढ़ो और अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करो।