कार्य में कुशलता लाएँ Class 12 नैतिक शिक्षा (उत्तरा) Chapter 4 Explain – HBSE आदर्श जीवन मूल्य Book Solution

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कार्य में कुशलता लाएँ Class 12 Naitik Siksha Chapter 4 Explain


बुद्धि सदा जिसकी समता में हो, यहीं छोड़ता पाप और पुण्य को।
जम योग में अब तू समता में रह, कि कर्मों में कौशल/कुशलता ही योग है।

प्यारे बच्चो! आपने पिछले अध्याय में पढ़ा कि ‘श्रीमद्भगवद्‌गीता’ के अनुसार ‘मन की समता’ को ही ‘योग’ कहा जाता है। इस अध्याय में हम ‘कर्मयोग’ के बारे में जानने का प्रयास करेंगे। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के सूक्ति वाक्यों में एक अत्यन्त प्रेरक एवं महत्त्वपूर्ण वाक्य है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ अर्थात् कर्मों में कुशलता योग है। ऐसे वाक्य से यह अनुमान लगाने में हमें तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ अत्यंत अद्भुत एवं व्यावहारिक धरातल का शास्त्र है। इस ग्रंथ ने योग को भी हर क्षेत्र में हर व्यक्ति के लिए अपने-अपने कर्त्तव्य-कर्म को पूरी कुशलता से करने का स्वरूप प्रदान किया है। यह ग्रंथ कर्म के संबंध में भी हमारा मार्गदर्शन करता है।

प्रिय वत्स! अब सबसे पहले प्रश्न उठता है कि वास्तव में कर्म क्या है, सच्चा कर्म क्या है और वह कैसे किया जाता है। कर्म वही है जिसे केवल औपचारिकता से किया जाता है या पहले से ही कुछ अपेक्षा रखकर किया जाता है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का यह भाव हमें प्रेरित करता है कि कर्म में हम अपनी पूरी योग्यता-क्षमता को झोंके, कर्म के साथ पूरा न्याय करें। ऐसा करने पर आप पाएँगे कि आपके द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म बहुत अच्छा परिणाम और सम्मान देता है। कर्म को मात्र औपचारिक रूप देना किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं।

प्यारे विद्यार्थियो! मान लो कि एक विद्यार्थी अपनी पाठ्य-पुस्तक पढ़ रहा है। उसके हाथ में पुस्तक तो हैं, लेकिन उसका ध्यान इधर-उधर या कहीं ओर है। अब आप स्वयं सोचकर बताओ कि क्या वह विद्यार्थी अपनी पढ़ाई के साथ न्याय कर पाएगा। निश्चित रूप से ऐसी पढ़ाई से उसे वांछित परिणाम (अच्छे अंक प्राप्त करना) भी प्राप्त नहीं होंगे। आप स्वयं भी ऐसी दिखानेवाली पढ़ाई से सहमत नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में गीता के सूक्त वाक्य ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ का तात्पर्य यह हुआ कि एक विद्यार्थी के रूप में आप अपनी पढ़ाई या अन्य किसी भी क्षेत्र में अपने कर्त्तव्य के साथ पूरा न्याय करो। प्यारे बच्चो! ‘गीता’ का यह सूक्त वाक्य न केवल विद्यार्थी बल्कि सभी लोगों पर भी लागू होता है। उदाहरण के लिए कक्षा में अध्यापक जब पढ़ा रहे हैं तब वे अपने कार्य को पूरी ईमानदारी से करें। वे पूरी योग्यता एवं सम्पूर्ण क्षमता से बच्चों को अपना विषय पढ़ाएँ। इसी प्रकार डॉक्टर अन्तर्मन से अपने रोगियों की रोगनिवृत्ति हेतु उपचार करें। हर क्षेत्र में हर व्यक्ति अपने कार्य के प्रति ईमानदार हो, निष्ठावान् हो, कर्मठ हो तो निश्चित समझें कि ‘गीता’ ही ‘जीवन का गीत’ बन जाएगा। ‘गीता’ समूची सामाजिक-राष्ट्रीय व्यवस्था में एक सुखद मांगलिक क्रांति का सूत्रपात करने वाली अनुपम प्रेरणा बन जाएगी। ‘गीता’ का यह सूक्ति-वाक्य वास्तव में सबको एहसास करवाता है कि ‘गीता’ का एक ही वाक्य कितना बड़ा परिवर्तन ला सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इसे जीवन में भी व्यवहृत किया जाए।

प्रिय बच्चो! यही गीता का कर्म योग है। कर्म को धर्म बनाने या कर्म को ही पूजा बनाने वाला यही ‘गीता’ का मूलमन्त्र है। हमें अपने-अपने कर्म पूरी निष्ठा, क्षमता और कुशलता से करने चाहिए। ध्यान रखो कि दिखाई देने वाला अच्छा और बड़ा कर्म भी ‘गीता’ की वृष्टि से योग नहीं है यदि उसमें उचित ईमानदारी और निष्ठा नहीं है। कोई सेवाधिकारी मन्दिर में भगवान की पूजा कर रहा है और यदि वह अपने कार्य को भक्ति के भाव से नहीं कर रहा, न उसमें पूरा ध्यान दे रहा है लेकिन दूसरी ओर एक सफाई कर्मी इस सेवा को भी अपना सौभाग्य और भगवान की कृपा मानकर पूरी निष्ठा से कर रहा है तो वह सफाई कर्मी ही ‘गीता’ का सच्चा कर्मयोगी माना जाएगा।

हे भारत की भावी ऊर्जा। कर्म के संबंध में दो महत्त्वपूर्ण कारकों प्रेम तथा आसक्ति के बारे में चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है। हमारे लिए यह अच्छा रहेगा कि हमारे मन में घर-परिवार स्वजन आदि से प्रेम हो, आसक्ति नहीं। आसक्ति मोह से जुड़ी होती है, इसलिए इसे मोहासक्ति कहते हैं। प्रेम में दूसरे के सुख की चिन्ता होती है, जबकि, मोहासक्ति में अपनी सुख-सुविधाओं की। प्रेम सबके प्रति अपने कर्त्तव्य की पहचान करवाता है जबकि मोहासक्ति दूसरों से सुख की अपेक्षा रखती है। इसीलिए मोहासक्ति अर्थात राग के साथ ही भय और क्रोध जैसे शब्द प्रयोग किए गए हैं। कर्म के क्षेत्र में जहाँ भी राग होगा वहीं ये दोनों साथ होंगे। जैसे ‘कहीं कोई बात। मेरे अनुकूल न हुई तो…’ ‘जो अपेक्षा मैंने रखी है, यह पूरी न हुई तो…’ तथा ‘जो मैंने सोचा ही नहीं कहीं वैसा हो गया तो…’ यही ‘तो’ की वृत्ति है तथा किसी ने यदि हमारे अनुकूल व्यवहार नहीं किया अथवा हमारी अपेक्षाओं के विपरीत कुछ हो गया तो स्वाभाविक ही हमारे अन्दर आक्रोश-क्रोध उत्पन्न होने लगता है।

प्रिय वत्स! एक बार अपने-अपने मन में यह विचार करो कि क्या हम अपने भीतर की एकाग्रता यूँ ही इन वृत्तियों की अधीनता में भंग करते रहेंगे? हम सब जानते हैं कि एकाग्रता बनाना अत्यंत कठिन काम होता है। उससे भी अधिक कठिन काम होता है- एक बार एकाग्रता के बिगड़ जाने पर फिर से अपने आपको उस एकाग्रता की अवस्था में लाना। जीवन की बहुत बड़ी सम्पदा है- एकाग्रता। इधर-उधर के राग और उनसे उपजे भय और क्रोध केवल एकाग्रता ही भंग नहीं करते हैं, बल्कि हमारे मन में समाए आत्मविश्वास और शान्ति को भी नष्ट कर देते हैं। प्यारे बच्चो! क्या आप में से कोई ऐसा विद्यार्थी है जो राग द्वेष, भय, क्रोध आदि के कारण अपने आत्मविश्वास और अपनी शान्ति को नष्ट करना चाहता है? यदि आप ऐसा नहीं चाहते हैं, तब यह निश्चित चेतावनी सदा अपने सामने रखे रखना।

प्रिय वत्स। अब एक बार कर्म पर पड़ने वाले भय और क्रोध के प्रभावों पर भी नजर डाल लेते हैं। भय और क्रोध तो जीवन की बहुत बड़ी विडम्बना हैं। आप जैसे विद्यार्थियों को परीक्षा परिणाम को लेकर भयभीत रहना, जरा-सी प्रतिकूलता पर सहम जाना, क्रोधावेश में आ जाना आदि ये सब किसी भी दृष्टि से उचित नहीं। अपने आपको आत्मविश्वास से अच्छी तरह भर लो। बात-बात में क्रोध करना या किसी भी आशंका से डरते रहना- ऐसी अवस्था आपको अन्दर से खोखला कर देगी और आपको मानसिक रूप से कमजोर बना देगी।

हे स्नेही बन्धु ! यदि जीवन में आगे बढ़ना है तो स्वामी विवेकानन्द जी को अपना आदर्श बनाओ। उन पर देश-विदेश में कितनी विपरीत स्थितियाँ आई, लेकिन उन्होंने संयम और धैर्यपूर्वक निर्भय होकर अपने को सदैव आगे बढ़ाया। उनके इसी आत्मविश्वास के कारण समूचे विश्व में उस समय भारत का अथाह सम्मान बढ़ा जबकि उस समय भारत परतन्त्र भी था। आओ, हम भी राग, भय, क्रोध की क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर जीवन को राष्ट्र-गौरव हेतु आगे बढ़ाएँ और ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ सूक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ करें।