पुरुषार्थ को परमात्मा का स्वरूप Class 9 नैतिक शिक्षा (मध्यमा ) Chapter 1 Explain – HBSE Solution

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पुरुषार्थ को परमात्मा का स्वरूप  Class 9 Naitik Siksha Chapter 1 Explain


आओ बच्चो ! विश्व वन्दनीय श्रीमद्भगवद्‌गीता नामक दिव्य शास्त्र का उपसंहार किस ढंग व किस भाव से हुआ है, इस विषय पर हम ध्यान देते हैं। गीता का 700वां श्लोक, संजय की वाणी से कहा गया है। श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया, लेकिन धृतराष्ट्र के मन्त्री संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि से इसे धृतराष्ट्र को सुनाया है। महर्षि वेद व्यास की कृपा से संजय अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा महाभारत के युद्ध के पूरे वृत्तान्त को देख रहे थे। धृतराष्ट्र जब- जब उनसे युद्ध के विषय में पूछ रहे थे, तब-तब वे उन्हें इस विषय में बता रहे थे। गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से प्रश्न किया- “धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की भावना से एकत्रित मेरे पुत्रों तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?” पूरा गीता उपदेश समाप्त होने पर अन्तिम श्लोक में संजय धृतराष्ट्र से कह रहे हैं कि-

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्भुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ -गीता अध्याय 18 श्लोक 78

अर्थात् जहाँ योगेश्वरं भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही विजय, श्री, विभूति होना निश्चित है। यही अचल नीति है तथा यही मेरा मत है।

संजय ने निर्भीक होकर बिना किसी लाग-लपेट या चापलूसी के सत्य की स्थिति को धृतराष्ट्र के सामने रख दिया। धृतराष्ट्र अभी शासनाध्यक्ष हैं। राज सत्ता उनके हाथों में है। सत्ता के समक्ष सत्य कहना कठिन होता है, परन्तु संजय ने अपनी सत्यनिष्ठा अथवा गीता के उपदेश को सुनने के परिणामस्वरूप पूरी दृढ़ता और निर्भीकता के साथ सत्य को बता दिया। सत्य के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को यह बात निश्चित रूप से समझनी चाहिए कि अन्तिम विजय तो सत्य की ही होती है, धर्म की होती है, अधर्म की नहीं। अधर्म प्रारम्भ में तो उछाल लेता दिखाई दे सकता है, परन्तु परिणाम कभी भी अधर्म के पक्ष में नहीं हुआ। रावण, कंस, दुर्योधन आदि अहंकारी, अधर्मी और आज के समय में भी ऐसे अनेक नाम देखे जा सकते हैं, जिन्होंने केवल अनीति, अधर्म का ही आश्रय लिया। धन और सत्ता के अहंकार में उन्होंने परमात्मा को नहीं समझा, धर्म और नीति का आश्रय नहीं लिया। इसी कारण अन्त में उनका पतन हुआ।

प्यारे बच्चो ! जीवन में हम सबके पास एक विलक्षण शक्ति है, जिसे “विवेक-विचार’ के नाम से जाना जाता है। इस विवेक-विचार को प्रयोग में लाने का यही उचित और सार्थक समय है। अतः आओ हम गीता के स्नेह, प्यार और दुलार की शीतल छाया में अपने भीतर की विचार शक्ति को जगाएँ। हम संकल्प करें कि साहस, उत्साह और दृढ़ निश्चय के साथ जीवन जीएँगे। हम सदैव धर्म को अपने साथ रखेंगे। धर्म वहीं है, जहाँ भगवान् हैं। “यत्र योगेश्वरः कृष्णो” का सीधा सा अर्थ यही है कि जहाँ भगव‌द्भाव का आधार हो तथा भगवकृपा का आश्रय हो, वहाँ विजय सुनिश्चित है।

संजय ने आगे यह भी कहा है कि ‘यत्र पार्थों धनुर्धरः’ अर्थात् जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन हैं। इसका एक भाव तो यह भी है कि जहाँ सर्वशक्तिमान् भगवान् के हाथ में लगाम है और अर्जुन जैसी समर्पित निष्ठा और विश्वास है। व्यावहारिक प्रेरणा के लिए गीता का सार और जीवन के व्यवहार के रूप में इसका यह अर्थ लिया जाना चाहिए कि भगवान् की कृपा को आधार बनाकर अपने-अपने कर्म में पूर्ण सजगता होनी चाहिए। पुरुषार्थ और परमात्मा का आश्रय दोनों साथ-साथ हों! भक्ति के नाम पर अथवा भगव‌द्भाव के सहारे निष्क्रिय होकर बैठ जाना कि भगवान् की कृपा होगी तो हो जाएगी, इस प्रकार की सोच गीता में मान्य नहीं है। दूसरी ओर कर्म करते समय अपने अन्दर व्यर्थ के अहंकार को बनाए रखने अथवा अहंकार के साथ कर्मक्षेत्र में प्रवेश करना गीतां के अनुसार अच्छे परिणाम देने वाली स्थिति नहीं है। अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रय के साथ महाभारत के युद्ध में प्रवेश करते हैं, जबकि दुर्योधन अपने अहंकार के साथ। दोनों का परिणाम स्पष्ट है। इस श्लोक अथवा गीता के भाव का निष्कर्ष यही है कि कर्मों में जहाँ जागरूकता होगी तथा अपने-अपने क्षेत्र में पूरी निष्ठा व कार्यकुशलता के साथ कर्म करने की भावना होगी, वहीं पर भगवान् की कृपा पर विश्वास और धर्म का भी एहसास होगा।

प्यारे बच्चो! स्पष्ट सी बात है कि जहाँ सूर्य है, वहाँ प्रकाश की किरणें हैं, जहाँ वृक्ष है, वहाँ छाया का होना स्वाभाविक है। उसी प्रकार जहाँ धर्म है एवं धर्म का सार तत्त्व, स्वयं भगवान् हैं, वहाँ यह सब होना स्वाभाविक ही है।

यहाँ एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि गीता ने आपको वर्तमान बाह्य सुख-साधनों व सफलताओं से वंचित नहीं रखा। सुख, ऐश्वर्य हों, लेकिन अनीतिपूर्ण तरीके से न होकर नीतिपूर्ण तरीके से हों। सफलता मिले, लेकिन उसके साथ अहंकार न मिल जाए। सफलता को ईश्वर की विभूति समझकर स्वीकार किया जाए। सुख हो लेकिन सन्मति अवश्य बनी रहे।

यदि श्री के साथ नीति नहीं, विजय के साथ विभूति नहीं और सुख के साथ सन्मति नहीं तो सब कुछ मिलने पर भी कहीं-न-कहीं पतन की संभावनाएँ बनी रह सकती हैं। पतन से हमें सावधान रहना ही है। बच्चो! गीता चाहती है कि मेरे लाल ! मेरे नौनिहाल !! आप सदा प्रत्येक क्षेत्र में ऊँचाइयों की ओर अग्रसर होते रहो! माँ कब चाहेगी कि मेरे बच्चों का किसी भी तरह का पतन हो। इसी बात से आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि गीता हमारी कितनी प्यारी माता है। तो आओ, क्यों न एक बार फिर मिलकर गुनगुना लें-
हम बच्चों की प्यारी गीता।
सब से सुन्दर न्यारी गीता ।।