सफलता के सूत्र Class 10 नैतिक शिक्षा (मध्यमा ) Chapter 3 Explain – HBSE Solution

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सफलता के सूत्र Class 10 Naitik Siksha Chapter 3 Explain


सार्वभौमिक सोच का एक अनूठा एवं आदर्श ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्‌गीता है। इस ग्रन्थ की उपयोगिता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किसी-न-किसी रूप में देखी जा सकती है। इस पाठ में गीता के अनुसार किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के विषय में चर्चा की गई है। बच्चो! अभी आप पढ़ाई कर रहे हैं। इसके पश्चात् आप किसी-न-किसी क्षेत्र में आगे भी बढ़ेंगे। अपने व्यवसाय, प्रबंधन अथवा ऐसे ही किसी अन्य क्षेत्र में सफलता या अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रयास करेंगे। आप अपने प्रयास में सफल हों, इसके लिए गीता में निम्नलिखित सूत्र बताए गए हैं-

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विद्यम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥ – गीता अध्याय 18 श्लोक 14

अर्थात् कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु बताए गए हैं- अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव। इसका कारण यह है कि कर्ता के बिना क्रिया कौन करेगा। अधिष्ठान आधार के बिना कोई भी काम कहाँ किया जाएगा। क्रिया के लिए करण (साधन) होने से ही कर्त्ता क्रिया करेगा, नहीं तो कर्म सिद्धि कैसे होगी?

बच्चो ! यह श्लोक आपके अच्छे जीवन के लिए मजबूत साथी बन सकता है। कर्म की सफलता के लिए ‘अधिष्ठान’ पहला कारण है। अधिष्ठान अर्थात् कुछ भी करते हुए पहले यह विचार कि इस कार्य को करने के पीछे मेरा भाव, आधार या लक्ष्य क्या है? मैं इस लक्ष्य को लेकर अथवा आधार को मानकर इसी भाव से कर्म करना चाहता हूँ। यदि आपका लक्ष्य केवल धन को प्राप्त करना होगा तो इसके लिए अनुचित एवं अवैध साधन को अपनाने में मुझे संकोच नहीं होगा। किसी को कष्ट पहुँचता है या नुकसान होता है तो हो जाए, मुझे लाभ होना चाहिए। मुझे इतना धन मिलना ही चाहिए। इस प्रकार की सोच में न नीति होगी, न ही न्याय। न मानवता होगी और न ही जीवन का कुछ आदर्श होगा। जीवन में धन का महत्त्व है, परन्तु हमें इस बात का अवश्य ध्यान रखना है कि धन ही जीवन में सब कुछ नहीं है। जीवन के लिए धन आवश्यक हो सकता है परंतु जीवन ही धन के लिए है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारा आधार या लक्ष्य धर्म हो, धन नहीं, यह अत्यावश्यक है। यहाँ धर्म का अर्थ है-नीति, न्याय, सद्गुण, परहित की भावना और मानवता।

इसे ऐसे भी स्वीकार कर सकते हैं कि आधार परमात्मा को मानते हुए उनकी कृपा के अनुसार अहंकार-रहित होकर अपने कार्य में प्रवेश करें। कर्म की सफलता में दूसरा कारण है- कर्त्ता अर्थात् जो कार्य करना है, उसके करने वाले की स्थिति क्या है? क्या आपने उस कार्य की पूरी जानकारी ले ली है, क्या उसका अनुभव आपके पास है? क्या कर्त्ता उस कार्य में सिद्धहस्त तथा योग्य है? क्या उस कार्य के प्रति उसकी पूरी रुचि है? यदि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं में है तो सफलता मिलने में संदेह हो सकता है। जिस कार्य में आपकी रुचि ही नहीं, वह कार्य आपके प्रति पूरी वफादारी नहीं निभा सकता। कर्त्ता को अपने कार्य में कुशल, समर्पित, निष्ठावान और अनुभवी होना चाहिए।

सफलता का तीसरा कारण है-‘करण’ अर्थात् साधन। हम जो कार्य करने जा रहे हैं, उसके लिए हमारे पास आवश्यक एवं अपेक्षित साधन हैं कि नहीं। उसके लिए जो स्थान, उचित निवेश एवं आवश्यक सहयोगी चाहिए वे सभी इस श्रेणी में आते हैं। हम काम बहुत बड़ा करना चाहते हैं, लेकिन इस अनुपात में हमारे पास निवेश, योग्यताएँ या कार्यकर्ता नहीं हैं, तो वहाँ भी कठिनाई आ सकती है।

सफलता का चौथा कारण है- ‘चेष्टा’। चेष्टा से अभिप्राय है- काम करने के लिए क्या प्रयत्न हो रहे हैं। कार्य बहुत बड़ा है, लेकिन चेष्टाएँ उसके अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं। जैसे कि समय पर उठना नहीं, कार्य के प्रति किसी प्रकार की सक्रियता नहीं, समय के अनुसार काम की शुरुआत नहीं। काम के प्रति प्रमाद, आलस्य, निद्रा का आवश्यकता से अधिक दबाव, काम को केवल कर्मचारियों के ऊपर छोड़ देना, अपनी ओर से किसी भी प्रकार की सजगता नहीं, कुछ नया प्रयास नहीं। आज की स्थितियों-परिस्थितियों एवं समय की आवश्यकंता अनुसार काम के लिए चेष्टा या प्रयास नहीं तो कार्य की सफलता कठिन है।

गीता के गोविंद श्रीकृष्ण ने सफलता का पाँचवाँ कारण ‘दैव’ को माना है। दैव अर्थात् भाग्य। भाग्य के विषय में दो बातें स्मरण रखने वाली हैं। एक तो यह कि हमारे ही पिछले कर्म-संस्कार हमारा अब का भाग्य बनते हैं। भाग्य को जीवन की कमजोरी के रूप में न माना जाए। हम यह सोचकर न बैठ जाएँ कि भाग्य में होगा तो यह काम हो जाएगा। इससे जीवन में प्रमाद बढ़ेगा। किसी कार्य में सफलता न मिलने पर यह सोचकर निष्क्रिय न हो जाना कि मेरा भाग्य अच्छा नहीं था। पूर्व जन्म के संस्कार अथवा प्रारब्ध के कारण यदि ऐसा हुआ भी है तो पहले के चार कारणों पर पूरा ध्यान देना चाहिए। अच्छे आधार और साधन के साथ कार्य-कुशलता से प्रयत्न करना चाहिए। पहले से ही मन बना लें कि कार्य के आधार, साधन या कार्य-कुशलता में कहीं कमी है, तो उसे पूरा करना है। इस सोच के साथ यदि हम कार्य करते हैं तो हमें सफलता अवश्य मिलेगी, ऐसा विश्वास रखना चाहिए।

प्यारे बच्चो ! देखो, गीता धार्मिक ग्रन्थ के साथ-साथ व्यवहार के हर क्षेत्र की कितनी सुन्दर और प्यारी प्रेरणा है। आज के इस वैज्ञानिक युग में हजारों वर्ष पूर्व दिया गया गीता का यह संदेश कितना महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है।