विनम्रता Class 9 नैतिक शिक्षा (मध्यमा ) Chapter 5 Explain – HBSE Solution

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विनम्रता  Class 9 Naitik Siksha Chapter 5 Explain


तद्विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया। 
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं, ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।। – गीता अध्याय 4 श्लोक 34

अर्थात् तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो, उनसे विनम्र भाव से जिज्ञासा का समाधान करो और उनकी सेवा करो। सिद्ध स्वरूप व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।

महाभारत के युद्ध की तैयारी हो चुकी थी। कौरव और पांडव दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। इसी दौरान दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया। किसी भी संघर्ष या प्रतिकूलता की स्थिति में या मन की दुविधा या उधेड़बुन की स्थिति में अपने आचार्य या गुरु के पास जाना बुरी बात नहीं है। भारतीय परंपराओं में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। प्रायः राजा लोग भी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए ऋषियों-मुनियों, संतों और महापुरुषों के पास जाते ही थे। राजा दशरथ स्वयं अनेक अवसरों पर अपने गुरु वशिष्ठ के पास समाधान के लिए जाते थे। राजा जनक मुनि अष्टावक्र के पास जाकर उनसे मार्गदर्शन एवं अच्छी प्रकार से राजकार्य चलाने के लिए सलाह लेते थे। छत्रपति शिवाजी अपने गुरु समर्थ स्वामी रामदास जी की मंत्रणा से ही स्वयं को आगे बढ़ाते थे।

ऐसे और भी अनेक उदाहरण देखने को मिल जाएँगे, लेकिन हमें यहाँ तथ्यात्मक रूप से सार की बात समझनी है। जब-जब जो भी अपने गुरुजनों अथवा श्रेष्ठजत्तों के पास गए होंगे निश्चित है कि विनम्रतापूर्वक खुले एवं खाली मन से ही समाधान के साथ-साथ सादर आशीर्वाद भी प्राप्त करने गए होंगे। इसके लिए शर्त भी यही है कि बड़ों के पास जाकर यदि हमें उनसे कुछ पाना है तो विनम्रता रखनी ही होगी। कभी भी अहंकार से न तो आशीर्वाद मिलता है और न ही समस्या का समाधान होता है।

लेकिन दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य के पास विनम्रता के साथ न जाकर अहंकार व राजमद लेकर जाता है। वह शिष्य के रूप में कुछ सीखने या समझने के लिए न जाकर आचार्य को ही पांडवों के विरुद्ध उकसाने और अनुचित समझाने के लिए जाता है। यही कारण है कि दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर भी उनसे आशीर्वाद न ले सका। महाभारत के युद्ध के प्रारम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर भी आचार्य द्रोण और भीष्म पितामह से आशीर्वाद प्राप्त करने गए। उन्होंने विनम्रता से उनको प्रणाम किया और युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद माँगा। उन्हें तत्काल आशीर्वाद भी मिल गया।

इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है कि जीवन में आगे बढ़ने और सफलता प्राप्त करने में गुरुजनों और बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद की बहुत बड़ी भूमिका होती है। अपने आचार्य-शिक्षक या गुरुजनों के निकट जाकर उनसे अपनी जिज्ञासा का समाधान करवाना, प्रश्नों के उत्तर लेना और उनके अनुभव का लाभ उठाना बहुत अच्छा है। यह आवश्यक भी है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि दुर्योधन जैसा अहं और मने में छल-कपट का व्यवहार अपने शिक्षक या आचार्य के लिए कभी भी विनम्रतापूर्ण नहीं होगा। हमें अपने श्रेष्ठजनों का आशीर्वाद लेना चाहिए और जीवन में सफलता के पथ पर सदैव आगे बढ़ते रहना चाहिए।